Sunday, January 4, 2009
आत्महत्या कर रहे किसान की कविता
किसान और आत्महत्या
रचनाकार-हरीशचन्द्र पाण्डे
उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की
क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती
वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या
वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे
वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए
कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति।
(रचना कविता कोश से और फोटो बीबीसी हिन्दी से साभार)
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
-
भूगर्भीय और भूतल जल के दिन-प्रतिदिन गहराते संकट के मूल में हमारी सरकार की एकांगी नीतियां मुख्य रूप से हैं. देश की आजादी के बाद बड़े बांधों,...
-
भाषा का न सांप्रदायिक आधार होता है, न ही वह शास्त्रीयता के बंधन को मानती है। अपने इस सहज रूप में उसकी संप्रेषणयीता और सौन्दर्य को देखना हो...
-
आज हम आपसे हिन्दी के विषय में बातचीत करना चाहते हैं। हो सकता है, हमारे कुछ मित्रों को लगे कि किसान को खेती-बाड़ी की चिंता करनी चाहिए। वह हि...
-
इस शीर्षक में तल्खी है, इस बात से हमें इंकार नहीं। लेकिन जीएम फसलों की वजह से क्षुब्ध किसानों को तसल्ली देने के लिए इससे बेहतर शब्दावली ...
-
बिहार की एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी सहित भारत में अपनी परियोजनाओं पर काम कर रहे तीन संगठनों को वर्ष 2009 के लिए अक्षय ऊर्जा के प्रतिष्ठित ऐशड...
-
सिर्फ पूंजी पर ही नजर रखना और समाज की अनदेखी करना नैतिकता के लिहाज से गलत है ही, यह गलत अर्थनीति भी है। करीब एक दशक पहले जब देश में आर्थिक स...
-
आज के समय में टीवी व रेडियो पर मौसम संबंधी जानकारी मिल जाती है। लेकिन सदियों पहले न टीवी-रेडियो थे, न सरकारी मौसम विभाग। ऐसे समय में महान कि...
-
यदि आपकी पर्यटन व तीर्थाटन में रुचि है तो आपको कैमूर पहाड़ पर मौजूद मुंडेश्वरी धाम की यात्रा एक बार अवश्य करनी चाहिए। पहाड़ की चढ़ाई, जंगल...
पांडे जी, नमस्कार
ReplyDeleteबड़ी ही दारुण व्यथा लिखी है आपने.
sharmanaak...
ReplyDeleteवे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
ReplyDeleteअन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
किसानो की दर्दनाक व्यथा , हमारे अन्नदाता की ऐसी दुर्दशा , व्याकुल कर गयी ये रचना...
regards
वो पितरों का ऋण तारने के लिए
ReplyDeleteभाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए
बहुत ही मार्मिक पंक्तियाँ है ...दर्दनाक है यह सब ..पहले भी लेख पढ़ा था ..
ऋषि-कृषिमय संस्कृति,आकुल-व्याकुल देख.
ReplyDeleteश्री भगवान तङप रहे, करूण-ह्र्दय की रेख.
करूण ह्र्दय की रेख, विश्व-मंगल की बाधा.
कृषक मरे तो रूठे मोहन रोये राधा.
यह साधक कवि, करे प्रार्थना व्याकुल-ह्रदय.
नित्य बिखरती देख, संस्कृति ऋषि-कृषिमय.
बहुत ही सुंदर कविता है, पढवाने के लिए आभार।
ReplyDeleteबहुत सशक्त रचना ! शुक्रिया !
ReplyDeleteकिसानों की आत्महत्या पर पिछली पोस्ट भी पढ़ी. बहुत दिनों से पी सैनाथ के बारे में और उनके कुछ लेखों का अनुवाद लिखने की सोच रहा था. आप लिखें तो बेहतर लिखेंगे.
ReplyDeleteकाश ऐसी कोई कविता ना लिखी जाए,
ReplyDeleteबेहद संवेदन्शील और आत्मा को कचोटती हुई रचना.
ReplyDeleteलगता है हम बेबस हैं.
रामराम.
आशोक पाण्डे जी, मेने किसानो को भी बहुत नजदीक से जाना है, ओर साहू कारो ( आडतियो )को भी बहुत नजदीक से जाना है, एक किसान पुरी उम्र काम कर कर के भी उस रोटी के चक्कर से बाहर नही निकल पाता, ओर अब तो तंग आ कर आत्म हत्या भी करने लग है, ओर एक आडती सारा दिन कुछ भी ना कर के इतना कमाता है की उस की सात पीढियां भी अगर घर मै बेठ कर खाये तो खत्म ना हो, हमारे यहां सिस्टम मै कही ना कही कोई गलत बात है जो एक मेहनती को धक्के ओर उसी मेहनती का फ़ल कोई दुसरा पा कर ऎश करता है.
ReplyDeleteबहुत ही भावुक लेख लिखा है आप ने, अगर किसानो ने अन्न देना , बोना बन्द कर दिया तो???
आप का धन्यवाद
बहुत खूब रचनाएँ पेश की हैं
ReplyDeleteबधाई
---
चाँद, बादल और शाम
http://prajapativinay.blogspot.com
शास्त्री जी के साथ "जय किसान" का नारा खत्म हो गया क्या ?
ReplyDeleteबडी दर्दभरी कविता है
सच को दर्शाती हुई --
आपको नये साल की शुभेच्छा
स-स्नेह,
- लावण्या
मैं भी कुश से सहमति जाताते हुये,,,कि सचमुच ऐसी नौबत न आये कि इन कविताओं को लिखने की जरूरत पड़े
ReplyDeleteमगर फिर सोचता हूं सच्चाई से मुंह भी तो नहीं मोड़ा जा सकता और कवितायें तो काम ही करती हैं सच्चाई बयान करने का
जीवन की विद्रूपताओं को चित्रित करती कविता, पढवाने का शुक्रिया।
ReplyDeleteविद्रूपताएं, विसंगतियां, विडम्बनाएं जीवन का हिस्सा हैं अशोक जी......... खैर...
ReplyDeleteभावों की सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बधाई
ReplyDeleteबहुत ही दर्द भारी सच्चाई है - सोचना चाहिए कि हालत ऐसे क्यों हैं और उन्हें कैसे बदला जा सकता है.
ReplyDeleteओह, मैं सोच रहा हूं कि वास्तव में यह कविता एक बड़े सत्य को रेखांकित और सोचने को बाध्य कर रही है।
ReplyDeleteइसे पढ़वाने को धन्यवाद।