Monday, September 22, 2008
झारखंड से निकली भोजपुरी पत्रिका 'परास'
झारखंड प्रदेश से भोजपुरी की नयी त्रैमासिक पत्रिका परास का प्रकाशन आरंभ हुआ है। तेनुघाट साहित्य परिषद (बोकारो) द्वारा निकाली जा रही इस पत्रिका के संपादक आसिफ रोहतासवी के हिन्दी और भोजपुरी के कई कविता व गजल संग्रह आ चुके हैं। पटना विश्वविद्यालय के सायंस कॉलेज में हिन्दी के व्याख्याता डॉ. रोहतासवी की रचनाओं में कृषि संस्कृति और ग्राम जीवन की अमिट छाप देखने को मिलती है। आशा है उनके कुशल संपादन में यह पत्रिका भी गांव की मिट्टी से जुड़ी इन संवेदनाओं की वाहक बनेगी।
परास के समहुत-अंक से उद्धृत है लोकप्रिय कवि व गीतकार स्व. कैलाश गौतम का एक भोजपुरी गीत :
चला चलीं कहीं बनवा के पार हिरना
एही बनवा में बरसै अंगार हिरना।
रेत भइलीं नदिया, पठार भइलीं धरती
जरि गइलीं बगिया, उपर भइलीं परती
एही अगिया में दहकै कछार हिरना।
निंदिया क महंगी सपनवा क चोरी
एही पार धनिया, त ओहि पार होरी
बिचवां में उठलीं दीवार हिरना।
बड़ी-बड़ी बखरी क बड़ी-बड़ी कहनी
केहू धोवै सोरिया, त केहू तौरै टहनी
केहू बीछै हरी-हरी डार हिरना।
गीतिया ना महकी, ना फुलिहैं कजरवा
लुटि जइहैं लजिया, न अंटिहैं अंचरवा
बिकि जइहैं सोरहो सिंगार हिरना।
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अभी ले लोग भोजपुरी के बोिलये समझे ले। बाकी इ भाषा ह,एकरा खाितर बड़ पऱयास के जरूरत बा। खाली इहे समझ लेला से िक भोजपुरी अंतरराष्टरीय भाषा बा,मािरशस,फीजी िनहन देशन के राष्टरीय भाषा ह,काम ना फिरयायी। एगो भोजपुरी के नया पतिरका अाइल बा सुन के मन गदगद भईल।
ReplyDeleteगीतिया ना महकी, ना फुलिहैं कजरवा
ReplyDeleteलुटि जइहैं लजिया, न अंटिहैं अंचरवा
बिकि जइहैं सोरहो सिंगार हिरना।
अशोक जी बहुत सुंदर गीत पढ़वाया ! लोक जीवन और लोक बोली की अपनी एक मिठास है ! परास इस दिशा में एक मिल का पत्थर sabit हो और iisswar से परास की
सफलता की कामना करता हूँ ! बहुत शुभकामनाएं !
परास की सफलता के लिए शुभकामनाएं !
ReplyDeleteअशोक जी परास के लिए तिवारीसाहब की तरफ़ से अनेक शुभकामनाएं !
ReplyDeleteभाज्पुरिया आदमी हूँ तो गीत समझ सकता हूँ... बहुते नीमन ! परास की साईट भी है क्या? बन जाए तो अच्छा हो. परास की सफलता के लिए शुभकामनायें.
ReplyDeleteअशोक जी सुंदर गीत के लिये धन्यवाद, ओर पारस की सफ़लता के लिये शुभ्कामनायें
ReplyDeletejankari ke liye aabhar.
ReplyDeleteगीत समझ रही हूँ
ReplyDeleteपरास का क्या अर्थ है ?
बढिया लगा ये गीत ~~
- लावण्या
वाह, कैलाश गौतम की कविता और पत्रिका का परिचय - याद रहेंगे। अच्छे लगे।
ReplyDeleteवाह!! बहुत सुन्दर भोजपुर गीत और बेहतरीन जानकारी. कैलाश गौतम जी की कई और रचना भी पढ़ी.बहुत शुभकामनाएं !
ReplyDeleteपरास की सफलता के लिए शुभकामनाएं
ReplyDelete@अभिषेक भाई, परास की साईट अभी नहीं है। लेकिन खेती-बाड़ी में विविध रचनाकारों की कृषि संस्कृति व लोकजीवन से ओतप्रोत उम्दा भोजपुरी रचनाएं प्रस्तुत करने की कोशिश करूंगा।
ReplyDelete@लावण्या दी, संस्कृत व हिन्दी का पलाश ही भोजपुरी का परास है। पलाश वृक्ष को ही टेसू (शायद इसके चटख टहकार रंग के कारण) और ढाक भी कहते हैं। भोजपुरी क्षेत्र के कुछ हिस्सों में खेती के आरंभ के अनुष्ठान - जिसे समहुत कहा जाता है - में पलाश वृक्ष के डाढ़ व पत्तियों की जरूरत पड़ती है।
ReplyDeleteपराश की सफलता के लिए शुभकामनाएं।
ReplyDeleteरेत भइलीं नदिया, पठार भइलीं धरती
ReplyDeleteजरि गइलीं बगिया, उपर भइलीं परती
एही अगिया में दहकै कछार हिरना।
कैलाश जी अद्भुत संवेदना के कवि थे. मेरा सौभाग्य कि कईं मंचों पर उनका सान्निध्य मिला. कईं यादें उभर आयी. खैर.....
भोजपुरी इन दिनों अपने उरूज पर है। उसमें पत्रिका का निकलना शुभ संकेत है।
ReplyDeleteबड़ी-बड़ी बखरी क बड़ी-बड़ी कहनी
ReplyDeleteकेहू धोवै सोरिया, त केहू तौरै टहनी
केहू बीछै हरी-हरी डार हिरना।
बढ़िया लिखा है।
आपका ब्लाग अच्छा लगा अशोक जी !! खासकर केदारनाथ जी की कविता !! आभार
ReplyDeleteअशोक जी सुंदर गीत के लिये धन्यवाद,
ReplyDeletebahut sunder bhoj puri kavita
ReplyDeletemajja aaya
regards